1 कुरिन्थियों 14:20 को समझना

1 कुरिन्थियों 14:20 को समझना

“हे भाइयों, बालकों की नाईं बुद्धिहीन न बनो; परन्‍तु बुराई के विषय में बालक बनो, पर बुद्धि में सिद्ध बनो।”

– 1 कुरिन्थियों 14:20 (Hindi O.V.)

प्रश्न:
प्रभु की स्तुति हो! मैं 1 कुरिन्थियों 14:20 पद का सही अर्थ समझना चाहता/चाहती हूँ।

उत्तर:
यह पद प्रेरित पौलुस द्वारा लिखा गया है, जो विश्वासियों को आत्मिक समझ और विवेक में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। आइए इसे ध्यानपूर्वक समझें।

पौलुस दो बातों की तुलना करता है: सोच में बालकों जैसे होना और बुराई के विषय में शिशु बने रहना। यह विरोधाभास एक गहरे आत्मिक सिद्धांत को उजागर करता है।

सोच में बालक होना का अर्थ है परमेश्वर के मार्गों, उसकी बुद्धि और आत्मिक बातों को समझने में अपरिपक्व बने रहना। पौलुस चाहता है कि कुरिन्थ की कलीसिया और हम सब आत्मिक रूप से परिपक्व बनें। बच्चे स्वाभाविक रूप से सीमित समझ रखते हैं और आसानी से भ्रमित हो जाते हैं। मसीही जीवन में बढ़ना आवश्यक है, जिससे हम परमेश्वर के वचन को गहराई से समझें और विवेकशील बनें (इब्रानियों 5:12–14 देखें)।

बुराई के विषय में शिशु होना का अर्थ है बुराई से अंजान और उससे अछूते रहना, जैसे छोटे बच्चे हानिकारक बातों से दूर रखे जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि हम अज्ञानी रहें, बल्कि यह कि हम जानबूझकर पवित्र और निर्दोष जीवन जिएं। हमें पाप में भाग नहीं लेना है और न ही उससे प्रभावित होना है (मत्ती 18:3; भजन संहिता 119:9 भी देखें)।

पौलुस इस बात को एक अन्य पत्री में भी दोहराता है:

“मैं चाहता हूँ कि तुम भलाई में बुद्धिमान और बुराई के विषय में भोले बनो।”
– रोमियों 16:19 (Hindi O.V.)

यहाँ पौलुस हमें भलाई में समझदार बनने और बुराई के विषय में कोमल एवं निष्कलंक बने रहने के लिए प्रेरित करता है – एक संतुलन जिसमें परिपक्वता और पवित्रता दोनों शामिल हैं।

आत्मिक परिपक्वता:
यह पद हमें स्मरण दिलाता है कि मसीही जीवन में आत्मिक वृद्धि आवश्यक है। हमें परमेश्वर के वचन में स्थिरता प्राप्त करनी चाहिए, ताकि हम झूठी शिक्षाओं या संसार की चालों से बहकाए न जाएं (1 कुरिन्थियों 14:20; 13:11 देखें)।

बुराई से निष्कलंक रहना:
परमेश्वर चाहता है कि हम “इस संसार में तो रहें पर संसार के जैसे न बनें” (यूहन्ना 17:14–16 देखें)। इसका तात्पर्य यह है कि हम पाप से दूर रहें, परन्तु आत्मिक रूप से जागरूक और मजबूत बने रहें।

विवेकशीलता:
हमें यह पहचानने की समझ होनी चाहिए कि कौन सी बातें हमारे आत्मिक जीवन के लिए लाभदायक हैं और कौन सी नहीं। उदाहरण के लिए, यदि हम उन चीज़ों से दूर रहते हैं जो हमें परमेश्वर से दूर करती हैं (जैसे ऐसी संगीत या आदतें जो अविशुद्ध जीवन को बढ़ावा देती हैं), तो हम अपने हृदय और मन को सुरक्षित रख सकते हैं (फिलिप्पियों 4:8 देखें)।

परमेश्वर के वचन में जीवन:
परिपक्वता परमेश्वर के वचन में गहराई से जड़ पकड़ने से आती है। उसका वचन हमारे जीवन के लिए दीपक और मार्गदर्शक है (भजन संहिता 119:105)।

दुनियावी जानकारी या सांस्कृतिक प्रवृत्तियों की हर बात को जानना आवश्यक नहीं है। इससे आत्मिक जीवन में कोई रुकावट नहीं आती। बल्कि, हमें यह सीखना है कि क्या स्वीकार करना है और क्या त्याग देना है – बुराई की बातों में “शिशु” बने रहें और सोच में “सिद्ध” बनें।

परमेश्वर आपको ज्ञान और पवित्रता में बढ़ाता रहे!


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Rehema Jonathan editor

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