परमेश्वर का भय मानना क्या होता है – और हम इसे कैसे सीख सकते हैं?

यहोवा का भय समझना

बाइबिल में “परमेश्वर का भय मानना” का अर्थ यह नहीं है कि हम किसी अत्याचारी से डरते हुए कांपें। इसके बजाय, यह परमेश्वर की पवित्रता, उसकी सर्वोच्चता और न्याय के प्रति गहरी श्रद्धा और सम्मान का भाव है—एक ऐसा मन जो आज्ञाकारी रहना और सच्चे मन से उसकी आराधना करना चाहता है।

परमेश्वर का भय केवल एक पहलू नहीं है, बल्कि यह हमारी आत्मिक ज़िंदगी की नींव है। इसका अर्थ है:

  • परमेश्वर से प्रेम करना

  • उसके वचन का पालन करना

  • बुराई से घृणा करना

  • विश्वासयोग्य होकर उसकी सेवा करना

  • उसकी इच्छा को खोजना

  • सच्चे मन से उसकी उपासना करना

सभोपदेशक 12:13 कहता है:

“सब बातों का अन्त सुन चुके हैं: परमेश्वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं को मान; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्तव्य यही है।”
(सभोपदेशक 12:13, ERV-HI)

आइए हम देखें कि परमेश्वर का भय मानने से बाइबिल के अनुसार कौन-कौन सी आशीषें मिलती हैं:


1. यहोवा का भय अनन्त जीवन की ओर ले जाता है

नीतिवचन 14:27

“यहोवा का भय जीवन का सोता है, यह मृत्यु के फंदों से बचाता है।”
(नीतिवचन 14:27, ERV-HI)

जो लोग परमेश्वर का भय मानते हैं, उन्हें आत्मिक जीवन और उद्धार का स्रोत मिलता है। यह जीवन में पवित्रता की ओर ले जाता है और अंततः मसीह में अनन्त जीवन तक पहुँचाता है (यूहन्ना 17:3 देखें)।


2. यहोवा का भय ज्ञान की शुरुआत है

नीतिवचन 1:7

“यहोवा का भय मानना बुद्धि का मूल है, पर मूढ़ लोग ज्ञान और शिक्षा से घृणा करते हैं।”
(नीतिवचन 1:7, ERV-HI)

सच्चा ज्ञान वहीं से शुरू होता है जहाँ हम परमेश्वर को अपने जीवन का प्रभु और सृष्टिकर्ता मानते हैं। गर्वीला मन सिखाया नहीं जा सकता, पर श्रद्धावान मन शिक्षा को ग्रहण करता है।

दानिय्येल 1:17, 20 में इसका उदाहरण मिलता है:

“इन चारों युवकों को परमेश्वर ने सब प्रकार की विद्याओं और ज्ञान में निपुण किया; और दानिय्येल को सब प्रकार के दर्शन और स्वप्न समझ में आते थे। […] राजा ने जब उनसे ज्ञान और बुद्धि की बातों में पूछताछ की, तब वह उन्हें अपने राज्य के सारे ज्योतिषियों और तांत्रिकों से दस गुणा अधिक बुद्धिमान पाया।”


3. यहोवा का भय सच्ची बुद्धि प्रदान करता है

भजन संहिता 111:10

“यहोवा का भय मानना बुद्धि का मूल है; उसकी आज्ञाओं को मानने वाले सब बुद्धिमान हैं।”
(भजन संहिता 111:10, ERV-HI)

बाइबिल के अनुसार बुद्धि केवल जानकारी नहीं है, बल्कि परमेश्वर के अनुसार सही जीवन जीने की सामर्थ्य है। जब सुलैमान ने परमेश्वर से बुद्धि मांगी, तो पहले उसने परमेश्वर का भय मानना चुना (1 राजा 3:5–14 देखें)।

याकूब 1:5 में लिखा है:

“यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो, तो वह परमेश्वर से मांगे […] और वह उसे दी जाएगी।”
(याकूब 1:5, ERV-HI)


4. यहोवा का भय जीवन को बढ़ाता है

नीतिवचन 10:27

“यहोवा का भय जीवन को बढ़ाता है, परन्तु दुष्टों के वर्ष घटाए जाते हैं।”
(नीतिवचन 10:27, ERV-HI)

हालाँकि यह हर व्यक्ति के लिए दीर्घायु की गारंटी नहीं है, फिर भी यह सिद्धांत बताता है कि परमेश्वर का भय माननेवाले अक्सर अच्छे निर्णय लेते हैं और विनाशकारी आदतों से बचते हैं।

अब्राहम (उत्पत्ति 25:7–8), अय्यूब (अय्यूब 42:16–17), और याकूब (उत्पत्ति 47:28) जैसे लोग इसका उदाहरण हैं।


5. यहोवा का भय तुम्हारे बच्चों के लिए सुरक्षा लाता है

नीतिवचन 14:26

“जो यहोवा का भय मानता है उसके पास दृढ़ विश्वास होता है, और उसके बच्चे भी शरण पाएंगे।”
(नीतिवचन 14:26, ERV-HI)

परमेश्वर का भय न केवल तुम्हारे लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आत्मिक सुरक्षा बन सकता है। जैसे परमेश्वर ने अब्राहम की संतानों को आशीष दी, वैसे ही वह तुम्हारे वंश को भी आशीष देगा (उत्पत्ति 17:7; भजन 103:17 देखें)।


6. यहोवा का भय समृद्धि और आदर लाता है

नीतिवचन 22:4

“नम्रता और यहोवा का भय मानने का फल है धन, आदर और जीवन।”
(नीतिवचन 22:4, ERV-HI)

ईश्वरीय समृद्धि का अर्थ केवल धन नहीं है, बल्कि शांति, सम्मान और पूर्ण जीवन भी है। जब हम पहले परमेश्वर के राज्य को खोजते हैं, तो वह हमारी आवश्यकताओं को पूरा करता है (मत्ती 6:33 देखें)।

मरकुस 10:29–30 में यीशु ने कहा:

“मैं तुम से सच कहता हूँ, जो कोई मेरे और सुसमाचार के लिए घर या भाई या बहन या माता या पिता या बालक या खेत छोड़ दे, वह इस समय सौ गुणा अधिक पाएगा […] और आने वाले युग में अनन्त जीवन पाएगा।”
(मरकुस 10:29–30, ERV-HI)


हम अपने जीवन में परमेश्वर का भय कैसे विकसित करें?

1. परमेश्वर के वचन का अध्ययन करें

परमेश्वर का चरित्र और उसकी इच्छा हमें बाइबल में प्रकट होती है। इसीलिए परमेश्वर ने इस्राएल के राजाओं को आज्ञा दी कि वे प्रतिदिन उसकी व्यवस्था पढ़ें ताकि वे उसका भय मानें।

व्यवस्थाविवरण 17:18–19

“जब वह अपने राज्य की गद्दी पर बैठे, तब वह इस व्यवस्था की एक प्रति […] अपने पास रखे और अपने जीवन भर उसे पढ़ता रहे, ताकि वह अपने परमेश्वर यहोवा का भय मानना सीखे […]।”
(व्यवस्थाविवरण 17:18–19, ERV-HI)


2. बुराई से दूर रहो

परमेश्वर का भय बुराई से घृणा करना सिखाता है।

नीतिवचन 8:13

“यहोवा का भय मानना यह है कि मनुष्य बुराई से बैर रखे; मैं अभिमान, अहंकार, बुरे आचरण और उल्टी बात से बैर रखता हूँ।”
(नीतिवचन 8:13, ERV-HI)

हम केवल पाप से दूर ही नहीं रहते, बल्कि परमेश्वर के समान उसे नापसंद भी करते हैं—विशेष रूप से घमंड और विद्रोह को, जो हर पाप की जड़ है।


3. श्रद्धा और भय के साथ आराधना और प्रार्थना करो

नियमित प्रार्थना, स्तुति और परमेश्वर की पवित्रता पर मनन हमें नम्र बनाए रखते हैं।

इब्रानियों 12:28–29

“इस कारण जब कि हम ऐसा राज्य पाते हैं जो डगमगाने का नहीं, तो आओ हम अनुग्रह को पकड़ें और उसके द्वारा परमेश्वर की ऐसी सेवा करें जो उसकी इच्छा के अनुसार हो, और भय और श्रद्धा सहित करें। क्योंकि हमारा परमेश्वर भस्म करनेवाली आग है।”
(इब्रानियों 12:28–29, ERV-HI)


आशीषित रहो!

अगर आप चाहें तो मैं इस लेख को पीडीएफ या ब्लॉग पोस्ट फॉर्मेट में भी तैयार कर सकता हूँ।


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पश्चाताप और दया की एक प्रार्थना

ईश्वर की दया और क्षमा को खोजना एक बुद्धिमानी भरा और जीवन को बदलने वाला निर्णय है — विशेषकर तब, जब अब भी समय है कि हम उसकी ओर लौट सकें।

हो सकता है आपको ऐसा लगे कि आपने ऐसे पाप किए हैं जिन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता — कि शायद ईश्वर आपको कभी क्षमा नहीं कर सकता। शायद आपने बहुत गंभीर पाप किए हैं — जैसे किसी का जीवन लेना, विवाह में विश्वासघात करना, गर्भपात कराना, परमेश्वर को कोसना, चोरी करना, तांत्रिकों के पास जाना, माता-पिता का अनादर करना, या किसी को गहराई से चोट पहुँचाना।

या फिर आप वे हैं, जिन्हें अब यह बोध हो गया है कि ईश्वर के बिना जीवन व्यर्थ और अर्थहीन है — और अब आप उसकी ओर लौटना चाहते हैं। यदि यह आप हैं, तो आपकी यह इच्छा अत्यंत मूल्यवान है। ईश्वर का एक महान उद्देश्य है कि आप आज इस मोड़ पर पहुंचे हैं।


यीशु का दया का वादा

यीशु ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि वह हर उस व्यक्ति को स्वीकार करते हैं जो सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है:

“पिता जो कोई मुझे देता है, वह मेरे पास आता है; और जो कोई मेरे पास आता है, उसे मैं कभी नहीं निकालूँगा।”
(यूहन्ना 6:37 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

यह वादा सुसमाचार का केंद्रीय संदेश है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितनी दूर तक चले गए हैं या कितने गहरे पाप में गिर गए हैं — यीशु आश्वासन देते हैं कि यदि कोई सच्चे मन से उनके पास आता है, तो वे कभी उसे अस्वीकार नहीं करेंगे। यही परमेश्वर की दया का हृदय है — वह टूटे हुए और खोए हुए लोगों को अपने पास बुलाते हैं।

यदि आपने आज पश्चाताप करने का निर्णय लिया है, तो यीशु का वादा आज भी आपके लिए कायम है। वे आपको कभी अस्वीकार नहीं करेंगे। इस क्षण से वे आपके जीवन में अद्भुत कार्य शुरू करेंगे। पश्चाताप का अर्थ केवल शब्दों में नहीं, बल्कि एक सच्चे और विनम्र हृदय से पाप से मुंह मोड़कर परमेश्वर की ओर लौटना है।


पश्चाताप क्या है?

पश्चाताप केवल दुखी होने या एक प्रार्थना कह देने का नाम नहीं है। सच्चा पश्चाताप हृदय, मन और जीवन की दिशा में परिवर्तन है। बाइबिल स्पष्ट करती है कि उद्धार के लिए पश्चाताप आवश्यक है:

“इसलिए मन फिराओ और परमेश्वर की ओर फिरो, ताकि तुम्हारे पाप मिटाए जाएँ, और प्रभु की ओर से विश्रांति का समय आए।”
(प्रेरितों के काम 3:19 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

केवल पछतावा महसूस करना पर्याप्त नहीं है — हमें सक्रिय रूप से उन चीजों से मुंह मोड़ना होगा जो हमें परमेश्वर से अलग करती हैं, और उसकी ज्योति में चलना होगा।

यीशु ने एक पापिनी स्त्री की कहानी के माध्यम से इसे बहुत सुंदर ढंग से दिखाया। लूका 7:36-48 में हम पढ़ते हैं कि वह स्त्री रोती हुई यीशु के चरणों पर इत्र उड़ेलती है। यीशु उसके आँसुओं में उसकी सच्ची पश्चाताप को देखते हैं और उसे क्षमा करते हैं। वह कहते हैं:

“तेरे विश्वास ने तुझे उद्धार दिया है; शांति से जा।”
(लूका 7:50 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

यह दर्शाता है कि सच्चा पश्चाताप केवल दुःख में नहीं, बल्कि यीशु पर विश्वास में भी होता है। जब आपका हृदय अपने पाप के कारण टूट जाता है और आप अपना विश्वास यीशु में रखते हैं, तो वह आपको क्षमा करते हैं और आपको अपनी शांति देते हैं।


यीशु के लहू की शक्ति

यीशु का लहू मसीही विश्वास का केंद्र है। बाइबिल कहती है:

“उसके पुत्र यीशु का लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है।”
(1 यूहन्ना 1:7 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

यीशु की मृत्यु ने हमारे पापों का दंड चुका दिया। उनका लहू हमें हर अधर्म से शुद्ध करता है। यदि आप सच्चे मन से पश्चाताप करते हैं, तो आप निश्चिंत रह सकते हैं कि यीशु का लहू आपके हर पाप को धोने के लिए पर्याप्त है — चाहे वे कितने भी गंभीर क्यों न हों।

जब आप अपने पापों को स्वीकार करते हैं और यीशु को अपना उद्धारकर्ता मानते हैं, तो आप वही क्षमा और शांति अनुभव कर सकते हैं जो केवल वही प्रदान कर सकते हैं। यही अर्थ है जब यीशु ने क्रूस पर कहा:

“पूर्ण हुआ।”
(यूहन्ना 19:30 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

उनकी बलिदानी मृत्यु ने हमारे पापों का पूरा मूल्य चुका दिया है, और उन पर विश्वास के द्वारा हमें क्षमा प्राप्त होती है।


पश्चाताप की प्रार्थना

यदि आप आज यह निर्णय लेने के लिए तैयार हैं कि आप पाप से मुंह मोड़कर ईश्वर की ओर लौटेंगे, तो यह प्रार्थना पूरे मन से करें। याद रखिए, परमेश्वर आपके हृदय को जानता है — और वह आपको अपने घर में लौटते हुए देखना चाहता है।

हे स्वर्गीय पिता,
मैं आज आपके सामने आता हूँ, अपने पापों को जानकर।
मैंने बहुत गलतियाँ की हैं, और मैं जानता हूँ कि मैं दंड का पात्र हूँ।

लेकिन हे प्रभु, आप करुणामय परमेश्वर हैं, और आपका वचन कहता है
कि आप उन पर दया करते हैं जो आपसे प्रेम करते हैं।

इसलिए आज मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।
मैं पूरे मन से अपने पापों से पश्चाताप करता हूँ
और स्वीकार करता हूँ कि यीशु मसीह ही प्रभु हैं।

मैं विश्वास करता हूँ कि उनकी क्रूस पर मृत्यु मेरे पापों के लिए थी,
और उनका लहू मुझे हर अधर्म से शुद्ध करता है।

मुझे आज से एक नई सृष्टि बना दीजिए,
और मुझे सहायता दीजिए कि मैं आज से आपके लिए जीवन व्यतीत कर सकूँ।

धन्यवाद यीशु, कि आपने मुझे स्वीकार किया और क्षमा किया।

आपके पवित्र नाम में मैं प्रार्थना करता हूँ।
आमीन।


कर्मों से पुष्टि

यदि आपने यह प्रार्थना विश्वास के साथ की है, तो अगला कदम है — अपने जीवन में उस पश्चाताप को दिखाना। सच्चा पश्चाताप आपके व्यवहार में भी प्रकट होता है। पौलुस लिखते हैं:

“इसलिए, यदि कोई मसीह में है, तो वह नई सृष्टि है; पुरानी बातें बीत गईं; देखो, सब कुछ नया हो गया है।”
(2 कुरिन्थियों 5:17 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

जब परमेश्वर देखता है कि आपका पश्चाताप सच्चा है — जब वह आपके जीवन में बदलाव देखता है — तब वह आपको अपने संतान के रूप में स्वीकार करता है। पश्चाताप एक भीतरी और बाहरी परिवर्तन दोनों है।


संगति का महत्व

इस नए जीवन में आगे बढ़ते समय, यह आवश्यक है कि आप विश्वासियों की संगति में रहें। बाइबिल हमें स्थानीय कलीसिया का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करती है, जहाँ हम मिलकर आराधना कर सकें, वचन से सीख सकें, और विश्वास में बढ़ सकें:

“और प्रेम और भले कामों में उकसाने के लिये एक-दूसरे का ध्यान रखें,
और जैसा कुछ लोगों की आदत है, अपनी सभा में इकट्ठे होने से न छूटें,
पर एक-दूसरे को और भी अधिक समझाएं,
क्योंकि तुम उस दिन को निकट आते हुए देखते हो।”
(इब्रानियों 10:24-25 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

इसके अतिरिक्त, बपतिस्मा (बपतिस्मा लेना) उद्धार की प्रक्रिया में एक आवश्यक कदम है। बाइबिल सिखाती है कि बपतिस्मा एक बाहरी संकेत है, जो आंतरिक परिवर्तन को दर्शाता है:

“पश्चाताप करो और तुम में से हर एक यीशु मसीह के नाम पर बपतिस्मा ले,
पापों की क्षमा के लिये, और तुम पवित्र आत्मा का वरदान पाओगे।”
(प्रेरितों के काम 2:38 — पवित्र बाइबिल: हिंदी O.V.)

बपतिस्मा आपके विश्वास की सार्वजनिक घोषणा है — और यह मृत्यु, गाड़े जाने और यीशु मसीह के पुनरुत्थान के साथ आपकी एकता का प्रतीक है।


जैसे-जैसे आप उसकी कृपा में आगे बढ़ते हैं, परमेश्वर आपको बहुतायत में आशीर्वाद दे।


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जब परमेश्वर आपको विजय की ओर ले जाना चाहता है, तो वह दुश्मन को उठने की अनुमति देता है

प्रभु की स्तुति हो! हमारे बाइबल अध्ययन में आपका स्वागत है। आज हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि किस तरह परमेश्वर कभी-कभी हमारी सफलता की यात्रा को तेज करने के लिए कठिन परिस्थितियाँ आने देता है।


भय पर विजय पाना

हमारे आगे बढ़ने में सबसे बड़ी रुकावटों में से एक है भय। जीवन में हम जो कुछ भी पाना चाहते हैं, यदि हम भय को पूरी तरह निकाल सकें, तो सफलता और भी आसान और तेज़ हो जाएगी। कई सफल उद्यमियों की कहानियों में हम देखते हैं कि उन्होंने जोखिम उठाए और अपने भय पर विजय पाई।

बाइबल कहती है:

“यदि विश्वास के साथ कर्म नहीं जुड़े हैं, तो वह विश्वास मरा हुआ है।”
(याकूब 2:26, ERV-HI)

सच्चा विश्वास अक्सर हमें अनजान राहों पर चलने को प्रेरित करता है, जो कि डर को पार करने की माँग करता है।

आत्मिक जीवन में भी यही सत्य लागू होता है। जब प्रभु हमें किसी असामान्य, जोखिम भरे या चुनौतीपूर्ण कार्य के लिए बुलाते हैं, तो हम डर की वजह से रुक जाते हैं। यही वह समय होता है जब हमें डर नहीं, बल्कि विश्वास को अपनाना होता है।


इस्राएली और लाल सागर – एक अद्भुत शिक्षा

जब इस्राएली मिस्र से निकले, तो वे लाल सागर के सामने खड़े थे – एक शारीरिक और आत्मिक रुकावट। लेकिन परमेश्वर ने मूसा को समुद्र पर हाथ बढ़ाने को कहा, और जल विभाजित हो गया।

“फिर मूसा ने समुद्र की ओर हाथ बढ़ाया और यहोवा ने पूरी रात तेज़ पूर्वी हवा से समुद्र को पीछे हटा दिया। पानी दो भागों में बंट गया और समुद्र की ज़मीन सूख गई।”
(निर्गमन 14:21-22, ERV-HI)

यह एक चमत्कारी उद्धार था, लेकिन इस्राएलियों का डर और अविश्वास एक आम मानवीय संघर्ष को दर्शाता है।


विश्वास का एक कदम

कल्पना कीजिए: सामने समुद्र, पीछे सेना और कहीं भागने का रास्ता नहीं। यही विश्वास की परीक्षा थी।

“मूसा ने लोगों से कहा, ‘डरो मत! डटे रहो और देखो, यहोवा आज तुम्हें कैसे बचाता है। आज जो मिस्री तुम देख रहे हो, उन्हें तुम फिर कभी नहीं देखोगे। यहोवा तुम्हारी ओर से लड़ेगा; तुम्हें केवल चुप रहना है।’”
(निर्गमन 14:13-14, ERV-HI)

मूसा का यह कथन हमें सिखाता है कि भय नहीं, बल्कि विश्वास की ज़रूरत है। परमेश्वर न केवल समुद्र को विभाजित करने में सक्षम है, बल्कि वह अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में भी विश्वासयोग्य है।


विश्वास की परीक्षा

जैसे इस्राएलियों की परीक्षा ली गई, वैसे ही हमें भी उन परिस्थितियों में रखा जाता है, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखता। परन्तु यही वे क्षण हैं जब परमेश्वर की शक्ति सबसे प्रकट होती है।

“जब तुम्हें तरह-तरह की परीक्षाएँ झेलनी पड़ें, तो खुश रहो, क्योंकि तुम्हारे विश्वास की परीक्षा तुम्हें धीरज सिखाती है। और जब वह धीरज पूरी तरह से विकसित होता है, तो तुम पूर्ण और सिद्ध बन जाते हो और तुम्हें किसी बात की कमी नहीं रहती।”
(याकूब 1:2-4, ERV-HI)

इन संघर्षों का उद्देश्य हमें परखना नहीं, बल्कि परिपक्व बनाना है।


पीछे दुश्मन – परमेश्वर की योजना

धार्मिक दृष्टिकोण से, हम यह समझते हैं कि परमेश्वर कभी-कभी शत्रु को हमारी ओर बढ़ने की अनुमति देता है, ताकि वह अपनी महिमा प्रकट कर सके। इस्राएलियों के मामले में, मिस्र की सेना का पीछा करना एक कारण बना जिससे वे विश्वास में समुद्र पार करने को मजबूर हुए।

“मैं मिस्रियों के मन को कठोर कर दूँगा और वे उनके पीछे जाएंगे। तब मैं फिरौन और उसकी सारी सेना, उसके रथों और घुड़सवारों के द्वारा अपनी महिमा प्रकट करूँगा। और मिस्री जान लेंगे कि मैं यहोवा हूँ।”
(निर्गमन 14:17-18, ERV-HI)

इसी तरह, हमारे जीवन की मुश्किलें परमेश्वर की महिमा प्रकट करने का माध्यम बन सकती हैं।


परमेश्वर की व्यवस्था और उद्धार

हम जब जीवन के “लाल समुद्र” के सामने खड़े होते हैं, तो लगता है कि हम फँस गए हैं। लेकिन परमेश्वर की व्यवस्था हमेशा पर्याप्त होती है

“कोई भी परीक्षा ऐसी नहीं आई है जो मनुष्य की शक्ति से बाहर हो। और परमेश्वर विश्वासयोग्य है; वह तुम्हें तुम्हारी शक्ति से अधिक परीक्षा में नहीं पड़ने देगा। जब वह परीक्षा आने देगा, तो उससे निकलने का रास्ता भी देगा ताकि तुम सहन कर सको।”
(1 कुरिन्थियों 10:13, ERV-HI)

जिस प्रकार लाल सागर एक मार्ग बना, वैसे ही परमेश्वर आज भी रास्ते बना रहा है।


तूफ़ानों में परमेश्वर पर विश्वास रखना

कभी-कभी परमेश्वर हमें असंभव जैसी स्थिति में डाल देता है, ताकि हम उस पर भरोसा करना सीखें। लाल सागर पार करना केवल शारीरिक नहीं, आत्मिक मुक्ति का कार्य भी था।

“परमेश्वर हमारी शरण और बल है, वह हमेशा मुसीबत में मदद करता है।”
(भजन संहिता 46:1, ERV-HI)

भले ही दुश्मन पास हो और रास्ता बंद लगे – परमेश्वर हमारे साथ है।


डर या विश्वास – हमें निर्णय लेना है

जब खतरों का सामना होता है, तब हमें तय करना होता है: क्या हम डर के आगे झुकेंगे या विश्वास में चलेंगे?

“क्योंकि परमेश्वर ने हमें डर की नहीं, पर सामर्थ्य, प्रेम और संयम की आत्मा दी है।”
(2 तीमुथियुस 1:7, ERV-HI)

हम डर के लिए नहीं, बल्कि पवित्र आत्मा की सामर्थ्य में जीने के लिए बुलाए गए हैं


निष्कर्ष: परमेश्वर की योजना है आपकी विजय

इसलिए, जब आप देखें कि दुश्मन पास आ रहा है और सामने चुनौतियों का समुद्र है – तो घबराइए नहीं। डटे रहिए और भरोसा रखिए कि परमेश्वर एक मार्ग बनाएगा।

“इन सब बातों में हम उस परमेश्वर के द्वारा जो हमसे प्रेम करता है, जयवंत से भी बढ़कर हैं।”
(रोमियों 8:37, ERV-HI)

उसकी प्रतिज्ञाओं पर विश्वास कीजिए, अडिग रहिए – और आप उसकी मुक्ति को देखेंगे।

मरणाठा! (प्रभु आ रहा है!)


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यीशु मसीह को परमेश्वर का पुत्र, दाऊद का पुत्र और आदम का पुत्र क्यों कहा जाता है?

हमारे प्रभु यीशु मसीह के नाम की स्तुति हो!

पवित्र शास्त्र में यीशु मसीह के लिए तीन अद्भुत उपाधियाँ दी गई हैं:

  • परमेश्वर का पुत्र

  • दाऊद का पुत्र

  • आदम का पुत्र

इनमें से हर एक उपाधि अत्यंत महत्वपूर्ण है और यह प्रकट करती है कि यीशु कौन हैं, वे किस उद्देश्य से आए और परमेश्वर की उद्धार योजना में उनका स्थान क्या है। आइए इन तीनों उपाधियों को विस्तार से समझें।


1. परमेश्वर का पुत्र – सब वस्तुओं का अधिकारी

“परमेश्वर का पुत्र” केवल एक नाम नहीं, बल्कि यह एक अधिकार और विरासत को दर्शाता है। बाइबल काल में पुत्र वही होता था जो पिता की सारी संपत्ति और अधिकार का अधिकारी होता। यीशु, परमेश्वर के पुत्र होने के कारण, सब वस्तुओं के अधिकारी हैं – उनकी महिमा, राज्य, शासन और वह सामर्थ्य जिससे वे मनुष्य को छुड़ाने और पुनः स्थापित करने आए।

इब्रानियों 1:2-3 में लिखा है:
“इन अंतिम दिनों में उसने हम से अपने पुत्र के द्वारा बातें कीं, जिसे सब वस्तुओं का अधिकारी ठहराया, और जिसके द्वारा उसने संसार की सृष्टि भी की। वही उसकी महिमा का प्रकाश और उसके तत्व का छवि होकर सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ्य के वचन से सम्भाले हुए है।”

यीशु को सारी सृष्टि पर अधिकार प्राप्त है क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र हैं। मत्ती 28:18 में वे कहते हैं:
“स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है।”

यीशु केवल परमेश्वर के सन्देशवाहक नहीं हैं – वे स्वयं परमेश्वर का पूर्ण प्रकटन हैं, जिनके द्वारा सृष्टि हुई और जो उसे कायम रखते हैं।


2. दाऊद का पुत्र – दाऊदिक वाचा की पूर्ति

“दाऊद का पुत्र” होने का अर्थ है कि यीशु मसीह, इस्राएल के महान राजा दाऊद की वंशावली से आते हैं और परमेश्वर की उस प्रतिज्ञा की पूर्ति हैं जो उसने दाऊद से की थी—कि उसका वंश सदा राज करेगा।

यीशु इस प्रतिज्ञा की सिद्ध पूर्ति हैं। वे केवल दाऊद के वंशज नहीं, बल्कि वह प्रतिज्ञात राजा हैं जो सदा के लिए राज्य करेगा। उनका राज्य केवल इस्राएल तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि सारी पृथ्वी पर उनका राज्य न्याय और शांति से स्थापित होगा।

मत्ती 1:1-17 में यीशु की वंशावली स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि वे दाऊद की वंश परंपरा में आते हैं, जो उन्हें दाऊद की गद्दी पर बैठने का अधिकार देता है। प्रकाशितवाक्य 21 में हम पाते हैं कि अंततः उनका राज्य एक नया यरूशलेम होगा—परमेश्वर और उसके लोगों का शाश्वत निवास।

यीशु का यह राजसी संबंध केवल अतीत का स्मरण नहीं, बल्कि भविष्य की आशा है: वे राजा हैं जिनका राज्य कभी समाप्त नहीं होगा।


3. आदम का पुत्र – मानवता की खोई हुई विरासत के मुक्तिदाता

तीसरी उपाधि “आदम का पुत्र” इस बात को उजागर करती है कि यीशु मानवता के उद्धारकर्ता हैं। आदम को सृष्टि के प्रारंभ में पृथ्वी पर प्रभुत्व दिया गया था, परंतु जब उसने पाप किया, तो उसने वह प्रभुत्व खो दिया और समस्त मानव जाति को पाप, मृत्यु और परमेश्वर से अलगाव में डाल दिया।

इस खोई हुई विरासत को पुनः प्राप्त करने के लिए एक दूसरे आदम की आवश्यकता थी—एक ऐसा व्यक्ति जो आदम की असफलता की भरपाई करे। यीशु मसीह, दूसरा आदम बनकर आए, ताकि जो कुछ खो गया था, उसे पुनः प्राप्त करें और उस अधिकार को लौटाएँ जिसे आदम ने गंवा दिया था।

1 कुरिन्थियों 15:45 में लिखा है:
“पहला मनुष्य आदम जीवित प्राणी बना; परन्तु अन्तिम आदम जीवनदायक आत्मा बना।”

यीशु, अंतिम आदम के रूप में, केवल एक आदर्श मानव नहीं थे, बल्कि उन्होंने परमेश्वर की इच्छा को पूर्णता से निभाया और पाप में गिरी हुई मानवता को छुड़ाया।

आदम के पुत्र के रूप में, यीशु ने न केवल मानवता का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि उसे पुनः उसके मूल उद्देश्य तक पहुँचाया—परमेश्वर के साथ उसके राज्य में सहभागी बनाना। वे वह हैं जिन्होंने पाप का श्राप तोड़ा और हमें परमेश्वर के साथ पुनः संबंध में लाया।

मत्ती 11:27 में यीशु कहते हैं:
“सब कुछ मेरे पिता ने मुझे सौंपा है; और कोई पुत्र को नहीं जानता, केवल पिता; और कोई पिता को नहीं जानता, केवल पुत्र और वह जिसे पुत्र उसे प्रकट करना चाहे।”

यीशु के द्वारा हमें वह पुनर्स्थापना प्राप्त होती है जो आदम के पतन के कारण खो गई थी। वे नये जीवन के दाता हैं, और उन्हें ग्रहण करने वाले प्रत्येक जन को वह प्रभुत्व फिर से प्राप्त होता है।


यीशु: आदि और अंत

यीशु आदि और अंत हैं—अल्फा और ओमेगा। वे परमेश्वर की पूर्ण छवि हैं और मानवता की पूर्णता। वे परमेश्वर के पुत्र हैं—सबका अधिकारी। वे दाऊद के पुत्र हैं—अनंतकाल के राजा। और वे आदम के पुत्र हैं—हमारी खोई हुई विरासत के मुक्तिदाता।

यीशु केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं—वे सम्पूर्ण सृष्टि के केन्द्रीय तत्व हैं: सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और उद्धारकर्ता। यदि आपने अभी तक उन्हें नहीं जाना है, तो आज ही उन्हें जानने का समय है। वे ही परमेश्वर तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग और अनन्त जीवन की एकमात्र आशा हैं।

प्रकाशितवाक्य 22:13 में यीशु कहते हैं:
“मैं ही अल्फा और ओमेगा हूँ, प्रथम और अंतिम, आदि और अंत।”

परमेश्वर आपको आशीष दे, जब आप यीशु को और गहराई से जानने और उनके अद्भुत कार्य को समझने की यात्रा में आगे बढ़ते हैं।

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प्रार्थना: वह साधन जो तुम्हारी विनती को छुपाता है

प्रार्थना वह सबसे शक्तिशाली उपकरण है जो किसी व्यक्ति को तुरन्त परमेश्वर की उपस्थिति में ले आता है। जैसा कि हम जानते हैं, जो कोई यहोवा परमेश्वर के सामने आता है, उसकी आवश्यकताओं के पूरी होने की संभावना बहुत अधिक होती है। यही कारण है कि शैतान नहीं चाहता कि कोई उस स्थान तक पहुँचे। इसलिए वह लोगों के मन में भटकानेवाले, शैतानी विचार डालता है जिससे वे प्रार्थना न कर सकें।

इन विचारों में से कुछ इस प्रकार हैं:


1. “मैं प्रार्थना करने के लिए बहुत थका हुआ हूँ”

अक्सर प्रार्थना के बारे में सोचने से पहले ही पहला विचार आता है—”मैं बहुत थका हूँ।” लोग सोचते हैं, “मैंने पूरा दिन काम किया है, मुझे आराम करने का समय नहीं मिला। मैं बीमार और नींद में हूँ, आज प्रार्थना छोड़ देता हूँ। कल करूँगा।”

कुछ और कहते हैं, “मैंने पूरा दिन प्रभु की सेवा की है। लोग मुझ पर निर्भर हैं, मुझे अनेक सभाओं में जाना है—इसलिए मैं आज प्रार्थना नहीं कर पाऊँगा।”

लेकिन हमारा प्रभु यीशु मसीह हमसे कहीं अधिक थके हुए होते हुए भी प्रार्थना करते थे। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगातार सेवा करते रहे, और जब पूरा दिन उपदेश देने के बाद विश्राम का समय होता, तो वे भीड़ को विदा कर अपने शिष्यों को आगे भेजते और स्वयं एकांत में पहाड़ पर जाकर प्रार्थना करते।

मत्ती 14:22-23
“तब यीशु ने तुरन्त अपने चेलों से कहा कि नाव पर चढ़कर उस पार चले जाएँ, जब तक कि वह लोगों को विदा करे। और लोगों को विदा करके वह अकेले प्रार्थना करने को पहाड़ पर चढ़ गया; और सांझ को वह वहाँ अकेला था।”

यीशु ने थकावट के बावजूद प्रार्थना को प्राथमिकता दी, क्योंकि वे जानते थे कि आत्मिक बल बिना प्रार्थना के नहीं मिल सकता। बाइबल कहती है:

मत्ती 4:4
“मनुष्य केवल रोटी से नहीं जीवित रहेगा, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है।”

तो फिर हम थकावट को बहाना क्यों बनाएँ? थकावट को कभी प्रार्थना का स्थान न लेने दो।


2. “मेरे पास प्रार्थना करने का समय नहीं है”

एक और झूठ जो शैतान लोगों के मन में डालता है वह यह है: “मेरे पास प्रार्थना करने का समय नहीं है।” लोग कहते हैं कि वे बहुत व्यस्त हैं। कुछ सेवक भी कहते हैं, “मैं सेवा में इतना व्यस्त हूँ कि अपने लिए प्रार्थना नहीं कर पाता।”

लेकिन याद रखिए, यीशु हम सबसे अधिक व्यस्त थे। भीड़ उन्हें सुनने और चंगा होने के लिए घेरे रहती थी, फिर भी वे अकेले में जाकर प्रार्थना करते थे।

लूका 5:15-16
“परन्तु उसका यश और भी फैलता गया; और बड़ी भीड़ उसको सुनने और अपनी बीमारियों से चंगे होने के लिये इकट्ठी हुई। परन्तु वह जंगलों में जाकर प्रार्थना करता रहा।”

यीशु ने दिखाया कि सेवा और व्यस्तता के बीच भी प्रार्थना को प्राथमिकता देनी चाहिए। मरकुस 1:35 में लिखा है कि यीशु भोर को उठकर एकांत में जाकर प्रार्थना करते थे।

तो यदि हम परमेश्वर की सेवा करते हैं, फिर भी अपने लिए समय नहीं निकालते—तो हम वास्तव में किसकी सेवा कर रहे हैं?


3. “क्या मैं बिना प्रार्थना के नहीं जी सकता?”

शैतान एक और विचार देता है: “मुझे प्रार्थना की क्या ज़रूरत है? मैं बिना उसके भी जीवन चला सकता हूँ।” हाँ, तुम संसार के काम बिना प्रार्थना के कर सकते हो—लेकिन उद्धार नहीं संभाल सकते।

तुम क्लब जा सकते हो, शराब पी सकते हो, चोरी कर सकते हो, अनैतिक जीवन जी सकते हो—बिना प्रार्थना के। लेकिन यदि तुम कहते हो कि तुम उद्धार पाए हुए हो और फिर भी प्रार्थना नहीं करते, तो जब परीक्षा आएगी, तुम टिक नहीं पाओगे।

मत्ती 26:41
“जागते रहो और प्रार्थना करते रहो कि तुम परीक्षा में न पड़ो; आत्मा तो तैयार है, पर शरीर दुर्बल है।”

क्या तुम सोचते हो कि शैतान तुम्हें छोड़ देगा केवल इसलिए कि तुम मसीही हो? नहीं—यदि तुम प्रार्थना नहीं करोगे, तो तुम उसकी चालों में फँस जाओगे।

याकूब 4:1-3
“तुम्हारे बीच में लड़ाइयाँ और झगड़े क्यों होते हैं? क्या यह तुम्हारी वासनाओं से नहीं होता, जो तुम्हारे अंगों में युद्ध करती हैं? तुम लालसा करते हो और तुम्हें मिलता नहीं, तुम हत्या करते हो, डाह करते हो और कुछ प्राप्त नहीं करते; तुम झगड़ते हो और लड़ते हो। तुम्हें नहीं मिलता क्योंकि तुम मांगते नहीं। तुम मांगते हो और तुम्हें नहीं मिलता, क्योंकि तुम बुराई की इच्छा से मांगते हो, ताकि अपने सुख में खर्च करो।”

प्रार्थना उद्धार के लिए वही है जो पेट्रोल कार के लिए है—बिना इसके आगे बढ़ना असंभव है।


4. “मुझे नहीं लगता मेरी प्रार्थना का उत्तर मिलेगा”

एक और झूठ है: “प्रार्थना व्यर्थ है, मेरी सुनवाई नहीं होगी।” परंतु यह असत्य है। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारी सुनवाई अवश्य होती है।

कुछ प्रार्थनाओं को बार-बार दोहराना पड़ता है। यीशु ने कहा कि हमें निरंतर प्रार्थना करते रहना चाहिए:

लूका 18:1
“तब उसने एक दृष्टान्त कहकर उन्हें यह दिखाया कि बिना ढीले हुए सदा प्रार्थना करते रहना चाहिए।”

मत्ती 7:7-8
“माँगो तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो तो पाओगे; खटखटाओ तो तुम्हारे लिए खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है; और जो ढूंढ़ता है, वह पाता है; और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाएगा।”

कुछ लोग सोचते हैं कि वे प्रार्थना के अलावा कोई और मार्ग खोज सकते हैं। लेकिन प्रभु यीशु ने स्वयं प्रार्थना के जीवन का आदर्श स्थापित किया। उन्होंने आँसुओं, पसीने और यहाँ तक कि लहू के साथ प्रार्थना की।

लूका 22:44
“और वह अत्यंत संकट में होकर और भी अधिक मन लगाकर प्रार्थना करने लगा; और उसका पसीना मानो लहू की बड़ी बड़ी बूंदों की नाईं भूमि पर गिरता था।”

इब्रानियों 5:7
“उसने अपने शरीर में रहने के दिनों में बड़े ज़ोर की दोहाई और आँसू के साथ उस से प्रार्थनाएँ और बिनती की जो उसे मृत्यु से बचा सकता था; और उसकी सुनी गई, क्योंकि वह भय मानता था।”


तो आइए, कोई शॉर्टकट न ढूंढ़ें। यदि हम परमेश्वर की सामर्थ को अपने जीवन में कार्य करते देखना चाहते हैं, तो अभी समय है कि हम अपने प्रार्थना जीवन को फिर से जागृत करें। प्रभु ने कहा कि हमें कम से कम एक घंटा प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिए।

विचारों के संघर्ष को हराएं। समय की कमी को बहाना न बनने दें। अपनी सामर्थ या बुद्धि पर नहीं, बल्कि प्रार्थना पर निर्भर रहें।

परमेश्वर तुम्हें आशीर्वाद दे।


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अपनी विरासत का उपयोग करें

मनुष्य के रूप में हमारे लिए जो सबसे बड़ी विरासत वादा की गई है, वह है — अनंत जीवन। यह वह प्रतिज्ञा है जो परमेश्वर ने हमसे की है, और हम इसे तब प्राप्त करते हैं जब हम यीशु मसीह पर अपना विश्वास रखते हैं। जो व्यक्ति यीशु मसीह में विश्वास करता है, वह परमेश्वर की सभी प्रतिज्ञाओं का वारिस बन जाता है — और सबसे बड़ी प्रतिज्ञा है अनंत जीवन।

हालाँकि, इस विरासत की पूरी प्राप्ति अभी बाकी है। आत्मिक दृष्टि से, हम पहले ही वारिस ठहराए जा चुके हैं — जैसे कोई बच्चा अपने पिता की संपत्ति का वारिस होता है, लेकिन उसे वास्तविक अधिकार बाद में मिलता है। प्रेरित पौलुस इस सच्चाई को रोमियों 8:17 में स्पष्ट करते हैं:

“और यदि हम सन्तान हैं तो वारिस भी हैं; अर्थात परमेश्वर के वारिस और मसीह के सहवारिस; यदि हम उसके साथ दुःख उठाएं, ताकि उसके साथ महिमा भी पाएँ।”
(रोमियों 8:17, Pavitra Bible)

जब समय पूरा होगा और यह सांसारिक जीवन समाप्त होगा, तब हमें वह सब सौंप दिया जाएगा जो परमेश्वर ने हमें प्रतिज्ञा किया है। यीशु को भी सारी सत्ता तभी दी गई जब उसने क्रूस पर अपना कार्य पूर्ण किया। जैसा कि मत्ती 28:18 में लिखा है:

“तब यीशु ने पास आकर उनसे कहा, ‘स्वर्ग और पृथ्वी पर सारे अधिकार मुझे दिए गए हैं।'”
(मत्ती 28:18, ERV-HI)

लेकिन यहाँ एक गंभीर सच्चाई है: यह विरासत खरीदी भी जा सकती है और बेची भी जा सकती है।

बाइबल स्पष्ट रूप से सिखाती है कि उद्धार और अनंत जीवन निशुल्क हैं, लेकिन इसका मूल्य होता है — एक ऐसा मूल्य जिसे धन से नहीं चुकाया जा सकता। यह मसीह का अनुसरण करने की इच्छा का विषय है। यह सच्चाई हमें मरकुस 10:17–21 में देखने को मिलती है:

मरकुस 10:17:
“जब यीशु मार्ग पर जा रहा था, तो एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया, उसके आगे घुटनों के बल गिरकर उससे पूछा, ‘हे उत्तम गुरु, मैं अनंत जीवन का अधिकारी बनने के लिए क्या करूं?'”

पद 18–19:
“यीशु ने उससे कहा, ‘तू मुझे उत्तम क्यों कहता है? कोई भी उत्तम नहीं, केवल एक — अर्थात परमेश्वर। आज्ञाओं को तो तू जानता ही है: हत्या न करना, व्यभिचार न करना, चोरी न करना, झूठी गवाही न देना, धोखा न देना, अपने पिता और माता का आदर करना।'”

पद 20:
“उसने कहा, ‘हे गुरु, इन सब आज्ञाओं का मैं बाल्यकाल से पालन करता आया हूँ।'”

पद 21:
“यीशु ने उसे ध्यान से देखा, उससे प्रेम किया और कहा, ‘तेरे पास एक बात की कमी है: जा, जो कुछ तेरे पास है उसे बेचकर कंगालों को दे दे, और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा। फिर आकर मेरे पीछे हो ले।'”

इस संवाद में हमें यह सिखाया गया है कि अनंत जीवन का अधिकारी बनने के लिए व्यक्ति को अपनी सांसारिक चीजों से मन हटाना होगा। “बेचना” का अर्थ है — उन वस्तुओं से मन को अलग करना जिन्हें पहले हृदय से लगाए रखा था, चाहे वह धन हो, प्रतिष्ठा, शिक्षा या सांसारिक सुख। यीशु इन वस्तुओं को गलत नहीं कह रहे, बल्कि वे पूछते हैं — “तेरा मन वास्तव में कहाँ है?”

“जहाँ तेरा धन है, वहीं तेरा मन भी लगा रहेगा।”
(मत्ती 6:21, ERV-HI)

जब हम इन चीज़ों से अपने हृदय को मुक्त करते हैं, तब हम मसीह में एक नया जीवन प्राप्त करते हैं। प्रेरित पौलुस भी यही अनुभव करते हैं, जैसा उन्होंने फिलिप्पियों 3:7–8 में लिखा:

पद 7:
“परन्तु जो बातें मेरे लाभ की थीं, उन्हें मैंने मसीह के कारण हानि की बात समझ लिया।”

पद 8:
“बल्कि अब भी मैं सब कुछ अपने प्रभु मसीह यीशु की महानता की पहचान के कारण हानि ही समझता हूं। उनके कारण मैंने सब कुछ खो दिया है, और उन्हें कूड़ा समझता हूं ताकि मसीह को पा सकूं।”

यह एक महान आत्मिक सच्चाई को प्रकट करता है — मसीह में वह सब कुछ है जो संसार की सारी संपत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान है। मसीह का अनुसरण करने का आह्वान है: “अपना सब कुछ छोड़ दो ताकि तुम वह प्राप्त कर सको जो अनंत है।”

लेकिन ध्यान रहे: परमेश्वर का राज्य बेचा भी जा सकता है — और कभी-कभी बहुत ही सस्ते में। यह तब होता है जब कोई व्यक्ति जिसने मसीह को जानने की कृपा पाई हो, उस कृपा को ठुकरा देता है और संसार को चुनता है। मत्ती 13:44–46 में यीशु दो दृष्टांतों द्वारा स्वर्ग के राज्य का मूल्य समझाते हैं:

पद 44:
“स्वर्ग का राज्य खेत में छिपे खजाने के समान है, जिसे किसी व्यक्ति ने पाया और छिपा दिया; और अपने हर्ष में जाकर उसने जो कुछ भी उसके पास था वह सब बेच दिया और वह खेत खरीद लिया।”

पद 45–46:
“फिर स्वर्ग का राज्य एक व्यापारी के समान है जो उत्तम मोतियों की खोज में था। जब उसने एक बहुत ही मूल्यवान मोती पाया, तो उसने जाकर जो कुछ भी उसके पास था वह सब बेच दिया और उसे खरीद लिया।”

इन दृष्टांतों में यीशु राज्य के अपार मूल्य को दर्शाते हैं — लेकिन यह भी कि उसे प्राप्त करने के लिए सब कुछ त्यागना होता है। दूसरी ओर, कोई व्यक्ति इस राज्य को अस्वीकार भी कर सकता है — जैसे यहूदा इस्करियोती ने मात्र तीस चांदी के सिक्कों में मसीह को सौंप दिया (देखें मत्ती 26:14–16)। उसने अनंत जीवन के बदले क्षणिक धन को चुना, और उसका स्थान बाद में मत्तीया ने लिया (देखें प्रेरितों के काम 1:26).

इसी प्रकार, एसाव ने अपने जन्मसिद्ध अधिकार को एक बार की भूख के लिए बेच दिया। उसकी यह मूर्खता इब्रानियों 12:16–17 में निंदा की गई है:

पद 16:
“कहीं ऐसा न हो कि तुम में कोई व्यभिचारी या एसाव जैसा सांसारिक विचारों वाला न निकले, जिसने एक ही भोजन के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र होने का अधिकार बेच डाला।”

पद 17:
“बाद में जब उसने आशीर्वाद पाना चाहा, तो उसे ठुकरा दिया गया। यद्यपि उसने इसे आँसुओं के साथ ढूंढा, फिर भी वह अपने निर्णय को बदलवा न सका।”

एसाव उन लोगों का प्रतीक है जो क्षणिक सुख के लिए अनंत विरासत को खो देते हैं। जब उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

इन बातों से हमें एक गहरी शिक्षा मिलती है: अपने स्वर्गीय उत्तराधिकार को इस संसार के क्षणिक सुखों के लिए मत बेचो।

“यह संसार और उसकी इच्छाएं समाप्त हो जाएँगी, पर जो परमेश्वर की इच्छा पूरी करता है वह सदा बना रहेगा।”
(1 यूहन्ना 2:17, ERV-HI)

इसलिए, आओ हम परमेश्वर के राज्य की खोज करें — और मसीह के लिए सब कुछ छोड़ने को तैयार रहें। मत्ती 13:44 और लूका 14:33 हमें सिखाते हैं कि परमेश्वर का राज्य हर कीमत पर प्राप्त करने योग्य है।

जब हम ऐसा करते हैं, तो हमारी खुशी पूरी हो जाती है। जैसा कि प्रकाशितवाक्य 21:4 में लिखा है:

“वह उनकी आँखों से हर आँसू पोंछ देगा। न मृत्यु रहेगी, न शोक, न रोना, न पीड़ा; क्योंकि पहली बातें जाती रहीं।”
(प्रकाशितवाक्य 21:4, ERV-HI)

परमेश्वर हमारी सहायता करे कि हम अपनी अनंत विरासत को थामे रहें।


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अब तैयार हो जाइए—इसके पहले कि देर हो जाए

क्या आप जानते हैं कि ठीक उस समय क्या हुआ जब नूह ने जहाज़ में प्रवेश किया? परमेश्वर ने नूह से कहा:

“तू और तेरा सारा घराना जहाज़ में आ जा; क्योंकि मैं ने इस समय तुझ को अपनी दृष्टि में धर्मी देखा है।”
(उत्पत्ति 7:1)

फिर नूह, उसकी पत्नी, उसके बेटे, उनकी पत्नियाँ और सब जानवर जहाज़ में चले गए।

जैसे ही वे अंदर गए, परमेश्वर ने स्वयं द्वार को बंद कर दिया। यह केवल एक भौतिक कार्य नहीं था, बल्कि एक आध्यात्मिक संकेत भी था—परमेश्वर की प्रभुता का। बाढ़ कब आनी थी, यह परमेश्वर के हाथ में था, और उसी ने द्वार को बंद किया:

“तब यहोवा ने उसके पीछे द्वार बंद कर दिया।”
(उत्पत्ति 7:16)

नूह के पास द्वार खोलने की शक्ति नहीं थी। एक बार जब परमेश्वर ने उसे बंद कर दिया, तो कोई भी भीतर नहीं आ सका।

पर एक चौंकाने वाली बात यह है: वर्षा तुरंत शुरू नहीं हुई। पृथ्वी पर तुरंत जलप्रलय नहीं आया।

“और पृथ्वी पर चालीस दिन और चालीस रात वर्षा होती रही।”
(उत्पत्ति 7:12)

लेकिन यह सब सात दिन बाद हुआ, जब द्वार बंद हो चुका था। यह देरी एक गहरी चेतावनी है: द्वार बंद होने के बाद भी थोड़ी देर की मोहलत थी, पर वह भी अंततः समाप्त हो गई।


उद्धार का द्वार बंद कर दिया गया

यहीं पर इस घटना का गहरा आत्मिक अर्थ सामने आता है। उद्धार का द्वार परमेश्वर ने बंद किया, और वही उसे फिर से खोल सकता है। जो बाहर रह गए, उन्हें देर से पता चला कि उनका मौका चला गया। जैसे जहाज़ परमेश्वर की सुरक्षा का स्थान था, वैसे ही आज उद्धार का मार्ग केवल यीशु मसीह है। यीशु ने कहा:

“मैं द्वार हूँ; यदि कोई मेरे द्वारा प्रवेश करे, तो वह उद्धार पाएगा।”
(यूहन्ना 10:9)

परन्तु एक बार जब अवसर खो गया, तो वह हमेशा के लिए खो जाता है। परमेश्वर का न्याय निश्चित है, और जब वह शुरू होता है, तो फिर लौटने का कोई मार्ग नहीं बचता:

“क्योंकि तुम आप भली भांति जानते हो कि प्रभु का दिन चोर की नाईं रात को आएगा।”
(1 थिस्सलुनीकियों 5:2)

बहुत से लोग जिन्होंने नूह को पहले तुच्छ समझा था, संभवतः बाद में गंभीर हो गए, जब उन्होंने आकाश में बादल देखे—पर उनकी प्रार्थनाएँ अनुत्तरित रहीं।

बाइबल कहती है:

“जब मनुष्य का पुत्र आएगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास पाएगा?”
(लूका 18:8)

यीशु ने चेताया कि जैसे नूह के दिनों में लोग अनजान थे, वैसे ही वह समय भी अचानक आएगा:

“जैसे नूह के दिनों में हुआ, वैसे ही मनुष्य के पुत्र के आने के समय भी होगा।”
(मत्ती 24:37)


संकीर्ण द्वार

लूका 13:24-25 में यीशु कहते हैं:

“संकीर्ण द्वार से प्रवेश करने का यत्न करो; क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ कि बहुत से लोग प्रवेश करना चाहेंगे, और न कर सकेंगे। जब घर का स्वामी उठकर द्वार बन्द कर देगा, और तुम बाहर खड़े होकर द्वार खटखटाने लगोगे, और कहोगे, ‘हे प्रभु, हमें खोल दे’, तब वह उत्तर देगा, ‘मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ से हो।’”
(लूका 13:24-25)

यहाँ यीशु उद्धार की तत्काल आवश्यकता पर जोर देते हैं। “यत्न करो” का अर्थ है—पूरी लगन और प्रयास से प्रभु के पास आओ। यह “संकीर्ण द्वार” केवल मसीह के द्वारा उद्धार का प्रतीक है:

“यीशु ने कहा, ‘मार्ग, सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता।’”
(यूहन्ना 14:6)

जब यीशु कहते हैं, “मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ से हो,” तो वह उन लोगों की ओर इशारा करते हैं जो केवल नामधारी मसीही हैं, पर उनके पास वास्तविक विश्वास और पश्चाताप नहीं है:

“जो कोई मुझ से कहे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु’, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा … तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, ‘मैंने तुम्हें कभी नहीं जाना।’”
(मत्ती 7:21-23)


मूर्ख कुँवारियाँ और बंद द्वार

मत्ती 25:1-13 में यीशु दस कुँवारियों का दृष्टांत सुनाते हैं—पाँच बुद्धिमान थीं और पाँच मूर्ख। मूर्ख कुँवारियाँ तैयार नहीं थीं, और जब दूल्हा आया, तो द्वार बंद हो गया

दूल्हा मसीह का प्रतीक है, और विवाह भोज स्वर्ग में मसीह के साथ अनन्त संगति को दर्शाता है (प्रकाशितवाक्य 19:7-9)। जो तैयार थीं, वे भीतर चली गईं; जो नहीं थीं, वे बाहर रह गईं।

“इसलिये जागते रहो, क्योंकि तुम न तो उस दिन को जानते हो और न उस घड़ी को।”
(मत्ती 25:13)

आज का सन्देश स्पष्ट है: अभी तैयार हो जाओ। बाद में अवसर नहीं मिलेगा।


उत्थापन (Rapture) और प्रभु की निकट वापसी

उत्थापन का सिद्धांत इस बात से गहराई से जुड़ा है कि द्वार एक बार बंद हो जाएगा। जैसे बाढ़ अचानक आई और सबको बहा ले गई, वैसे ही मसीह का आगमन अचानक होगा:

“क्योंकि प्रभु आप स्वर्ग से जयजयकार और प्रधान स्वर्गदूत का शब्द और परमेश्वर की तुरही के साथ उतरेगा; और पहले वे जो मसीह में मरे हैं, जी उठेंगे। तब हम जो जीवित और बचे रहेंगे, उनके साथ बादलों में उठा लिए जाएँगे, कि हवा में प्रभु से मिलें।”
(1 थिस्सलुनीकियों 4:16-17)

यीशु ने कहा:

“इसलिये जागते रहो, क्योंकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारा प्रभु किस दिन आएगा … इसलिये तुम भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी को तुम समझते नहीं, उसी घड़ी मनुष्य का पुत्र आएगा।”
(मत्ती 24:42,44)

जब उत्थापन होगा, जो तैयार हैं वे उठाए जाएँगे, और बाकी पीछे छूट जाएँगे:

“धन्य वह दास है, जिसे उसका स्वामी आने पर ऐसा ही करते पाए।”
(मत्ती 24:46)


तैयार हो जाइए: उद्धार का समय अब है

नूह के समय में, जब परमेश्वर ने द्वार बंद किया, तो उद्धार का अवसर समाप्त हो गया। आज भी, उद्धार का अवसर हमेशा के लिए नहीं खुला रहेगा

“देखो, अभी वह सुख का समय है; देखो, अभी उद्धार का दिन है।”
(2 कुरिन्थियों 6:2)

संदेश एकदम साफ़ है: अब तैयार हो जाइए। अनुग्रह का द्वार अभी खुला है, पर यह सदा के लिए नहीं रहेगा। जैसे नूह के समय में न्याय अचानक आया, वैसे ही आज भी प्रभु का दिन अचानक आ सकता है।

मरणाठा — प्रभु आ रहा है।


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सपने में सार्वजनिक रूप से शौच करना – इसका अर्थ क्या है?

सपने कई बार गहरी आत्मिक सच्चाइयों को प्रकट करते हैं। सपने में सबके सामने शौच करना देखने में भले ही शर्मनाक लगे, पर यह सपना संभवतः परमेश्वर की ओर से एक चेतावनी या आत्मिक संदेश हो सकता है।

इस सपने का क्या मतलब हो सकता है?

छिपे हुए पापों या रहस्यों का प्रकट होना

सार्वजनिक रूप से शौच करना अक्सर हमारे अंदर छिपे संघर्षों, पापों या उन बातों का प्रतीक होता है जिन्हें हम छुपा रहे हैं—पर जो जल्द ही उजागर हो सकते हैं।

बाइबिल कहती है:

“क्योंकि परमेश्वर हर एक काम का, यहाँ तक कि हर एक गुप्त बात का, चाहे वह भली हो या बुरी, न्याय करेगा।”
(सभोपदेशक 12:14)

“क्योंकि ऐसा कुछ भी गुप्त नहीं, जो प्रकट न होगा; और न कुछ छिपा है, जो जाना न जाएगा और प्रगट न होगा।”
(लूका 12:2-3)


पश्चाताप और आत्मिक शुद्धि की पुकार

यह सपना यह भी संकेत हो सकता है कि परमेश्वर आपको आत्मिक शुद्धता की ओर बुला रहे हैं। जैसे शरीर से गंदगी बाहर निकालनी होती है, वैसे ही आत्मा से भी पाप और बोझ को हटाना आवश्यक है।

“यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह विश्वासयोग्य और धर्मी है, कि हमें पाप क्षमा करे और सब अधर्म से शुद्ध करे।”
(1 यूहन्ना 1:9)


आत्मिक युद्ध और छुड़ाव

कुछ सपने आत्मिक संघर्ष को दर्शाते हैं। यदि यह सपना बार-बार आ रहा है, तो यह दोषबोध, शर्म, या आत्मिक बंधनों का संकेत हो सकता है।

“इसलिये सचाई से अपनी कमर कसकर, और धर्म की झिलम पहनकर स्थिर रहो।”
(इफिसियों 6:14)

प्रार्थना और उपवास के द्वारा आत्मिक बंधनों को तोड़ा जा सकता है (मत्ती 17:21 देखें)।


अब क्या करें?

  • अपने जीवन का निरीक्षण करें – क्या कोई छिपे हुए पाप या सुलझे न मुद्दे हैं?

  • पश्चाताप करें और क्षमा माँगें – परमेश्वर से प्रार्थना करें और शुद्धि की मांग करें।

  • आत्मिक जीवन को मज़बूत करें – नियमित रूप से बाइबिल पढ़ें, प्रार्थना करें और आत्मिक मार्गदर्शन लें।

  • आवश्यक हो तो आत्मिक छुड़ाव प्राप्त करें – यदि यह सपना बार-बार आता है, तो प्रार्थना और उपवास द्वारा आत्मिक छुटकारा प्राप्त करें।


शुद्धि और नवीनीकरण के लिए एक सरल प्रार्थना

“प्रभु यीशु, मैं तेरे सामने आता हूँ और अपने पापों और दुर्बलताओं को स्वीकार करता हूँ। मैं तेरी दया और शुद्धि माँगता हूँ। मेरे जीवन से वह सब कुछ हटा दे जो तुझको अप्रिय है। मैं अपने विचारों, कार्यों और भविष्य को तेरे हाथों में सौंपता हूँ। मुझे अपने पवित्र आत्मा से भर दे और धार्मिकता के मार्ग में मेरी अगुवाई कर। यीशु के नाम में, आमीन।”


यदि आपने ऐसा सपना देखा है, तो इसे हल्के में न लें। यह हो सकता है कि परमेश्वर आपको गहरे आत्मिक स्तर पर बुला रहे हों। यह एक अवसर हो सकता है जिसमें आप परमेश्वर को और गहराई से जान सकें और विश्वास में बढ़ें।

परमेश्वर आपको आशीष दे और सामर्थ्य प्रदान करे!

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ऐश बुधवार: क्या यह बाइबल आधारित है?

ऐश बुधवार कैथोलिक कलीसिया में चालीसा (Lent) की 40 दिनों की अवधि की शुरुआत को दर्शाता है, जो ईस्टर तक चलता है। इस दिन, खजूर की डालियाँ—जो यीशु के यरूशलेम में विजयी प्रवेश का उत्सव मनाने के लिए उपयोग की गई थीं—जला दी जाती हैं और उनसे बनी राख को विश्वासियों के माथे पर क्रूस के चिन्ह के रूप में लगाया जाता है। यह राख पश्चाताप और नश्वरता का प्रतीक होती है। राख लगाते समय सेवक कहता है, “स्मरण रख कि तू मिट्टी है और मिट्टी में ही लौट जाएगा,” जो उत्पत्ति 3:19 से लिया गया है, जहाँ परमेश्वर आदम से कहता है,

“क्योंकि तू मिट्टी है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।” (उत्पत्ति 3:19)

यह मानव की दुर्बलता और पश्चाताप की आवश्यकता की याद दिलाता है।

लेकिन क्या ऐश बुधवार बाइबल आधारित है?

क्या ऐश बुधवार बाइबल में है?
उत्तर है: नहीं। ऐश बुधवार एक विशेष रीति के रूप में बाइबल में कहीं उल्लेखित नहीं है। न ही कलीसिया द्वारा इस दिन को मनाने, चालीसा की शुरुआत करने या राख के प्रयोग की कोई बाइबिलीय आज्ञा है। हां, उपवास और पश्चाताप निश्चित रूप से बाइबल आधारित अभ्यास हैं, लेकिन ऐश बुधवार स्वयं एक परंपरा है जो बाद में कलीसिया के इतिहास में विकसित हुई। यह मनुष्य द्वारा स्थापित एक परंपरा है, न कि परमेश्वर की दी हुई आज्ञा।

यह समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि बहुत से लोग गलती से ऐश बुधवार को बाइबल का आदेश मान लेते हैं, यह सोचते हुए कि राख में कोई आत्मिक शक्ति है या इस दिन का पालन आत्मिक वृद्धि के लिए आवश्यक है। लेकिन सच्चाई यह है कि बाइबल में ऐसा कोई आदेश नहीं दिया गया है कि मसीही ऐश बुधवार का पालन करें। यदि कोई मसीही इसे नहीं मानता, तो यह पाप नहीं है। और राख में कोई दैवीय शक्ति नहीं है।

मसीहियों के लिए असली आवश्यकताएं क्या हैं?
बाइबल में जो स्पष्ट रूप से बताया गया है, वही मसीहियों के लिए अनिवार्य है। प्रेरितों के काम 2:42 में प्रारंभिक कलीसिया के चार मुख्य कार्यों का वर्णन किया गया है:

  1. रोटी तोड़ना – प्रभु भोज में भाग लेना, जो मसीह और एक-दूसरे के साथ एकता का प्रतीक है।

  2. संगति रखना – आराधना, शिक्षा और सहारे के लिए एकत्र होना।

  3. प्रेरितों की शिक्षा में बने रहना – परमेश्वर के वचन का अध्ययन और प्रेरितों की शिक्षाओं का पालन।

  4. प्रार्थना करना – प्रार्थना मसीही जीवन का केंद्र है, और उपवास प्रायः प्रार्थना के साथ किया जाता है।

ये चार बातें—आराधना, संगति, शिष्यत्व और प्रार्थना—वे आधारभूत अभ्यास हैं जिन्हें करने का मसीहियों को निर्देश दिया गया है। उपवास निश्चय ही बाइबल आधारित है, लेकिन यह किसी विशेष दिन जैसे ऐश बुधवार से जुड़ा हुआ नहीं है। यह व्यक्ति की आंतरिक प्रेरणा और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से किया जाना चाहिए।

तो फिर चालीसा के दौरान उपवास का क्या?
चालीसा के समय उपवास करना आत्मिक अनुशासन का एक उपयोगी माध्यम हो सकता है, यदि यह सही मनोभाव से किया जाए। लेकिन बाइबल में कहीं नहीं कहा गया कि ईस्टर से पहले 40 दिनों का उपवास आवश्यक है। उपवास को किसी परंपरा या धार्मिक बोझ के रूप में नहीं बल्कि नम्रता, प्रार्थना और पश्चाताप के माध्यम से परमेश्वर के निकट आने के एक साधन के रूप में किया जाना चाहिए। उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए—परंपरा निभाने के लिए नहीं, बल्कि हृदय से परमेश्वर की खोज के लिए।

निष्कर्ष: आत्मिक वृद्धि पर ध्यान दें, न कि परंपराओं पर
ऐश बुधवार और अन्य धार्मिक परंपराएं जैसे गुड फ्राइडे या विशेष पर्व हो सकते हैं सांस्कृतिक या ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हों। लेकिन मसीहियों को सावधान रहना चाहिए कि वे इन परंपराओं को बाइबल के आदेशों के समकक्ष न बना दें। सच्ची आत्मिकता किसी रीति-रिवाज में नहीं, बल्कि परमेश्वर के साथ जीवित संबंध में है—जो प्रार्थना, वचन, संगति और दूसरों के प्रति प्रेम में प्रकट होती है।

अंततः, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम केवल वही करें जो बाइबल में स्पष्ट रूप से कहा गया है, और हमारी आत्मिकता का उद्देश्य यह हो कि हम परमेश्वर के और निकट पहुँचें—न कि केवल ऐसी परंपराओं को निभाएं जिनका कोई बाइबिलीय आधार नहीं है।

परमेश्वर आपको आशीष दे।

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क्या मसीहियों को वैलेंटाइन डे मनाना चाहिए?

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हर साल 14 फरवरी को पूरी दुनिया “वैलेंटाइन डे” यानी “प्रेम दिवस” के रूप में मनाती है। लेकिन क्या प्रभु यीशु में विश्वास करने वालों को इस दिन को मनाना चाहिए? क्या यह मसीही विश्वास के अनुरूप है, या फिर यह एक सांसारिक परंपरा है जो हमें असली प्रेम से भटकाती है?

वैलेंटाइन डे की उत्पत्ति

इतिहास के अनुसार वैलेंटाइन (या वैलेंटिनस) नामक एक रोमन पादरी तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस द्वितीय के शासनकाल में जीवित था। क्लॉडियस एक मूर्तिपूजक था, जिसने मसीही विश्वासियों के लिए अनेक कठिनाइयाँ खड़ी कीं। उसने यह आदेश जारी किया कि रोमन सैनिक विवाह नहीं कर सकते, क्योंकि वह मानता था कि अविवाहित पुरुष बेहतर योद्धा बनते हैं।

लेकिन वैलेंटाइन ने इस अन्यायी नियम का विरोध किया। वह करुणा और मसीही विश्वास से प्रेरित होकर सैनिकों के लिए गुप्त रूप से विवाह समारोह आयोजित करता रहा। जब उसके कार्यों का पता चला, तो उसे गिरफ्तार कर मृत्युदंड की सजा दी गई।

कहा जाता है कि जेल में रहते हुए उसकी दोस्ती जेलर की अंधी बेटी से हो गई। वैलेंटाइन ने उसके लिए प्रार्थना की, और वह चमत्कारी रूप से देख पाने लगी। कहा जाता है कि फाँसी से ठीक पहले, 14 फरवरी 270 ईस्वी को, उसने उसे एक विदाई पत्र लिखा, जिस पर हस्ताक्षर थे: “तुम्हारा वैलेंटाइन।”

बाद में इसी कहानी से प्रेरित होकर 14 फरवरी को प्रेम-पत्र और उपहार देने की परंपरा शुरू हुई। परंतु प्रश्न यह है कि क्या यह कहानी किसी भी प्रकार से बाइबल आधारित मसीही विश्वास से जुड़ी है? उत्तर है – लगभग नहीं।

क्या वैलेंटाइन डे मसीही विश्वास के अनुरूप है?

वैलेंटाइन डे का बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, न ही यह परमेश्वर की महिमा करता है। यह दिन सामान्यतः भावनात्मक आकर्षण, शारीरिक आकर्षण और सांसारिक विचारों को बढ़ावा देता है – जो परमेश्वर के वचन से बिल्कुल विपरीत हैं।

1 पतरस 4:3 (ERV-HI):
“तुमने तो अपने पिछले जीवन में गैर-यहूदियों की इच्छाओं के अनुसार जीने में पर्याप्त समय बर्बाद किया है। उस समय तुम लोग बुरे कामों, बुरी इच्छाओं, शराब पीने, जश्न मनाने और घृणित मूर्तिपूजा में लगे रहते थे।”

आज वैलेंटाइन डे आमतौर पर पार्टी, अनैतिकता और भौतिक प्रेम के रूप में जाना जाता है – यह न तो परमेश्वर की आराधना का दिन है और न ही आत्मिक बढ़ोतरी का।

मसीहियों के लिए असली प्रेम-दिवस क्या है?

मसीहियों के लिए प्रेम कोई एक दिन नहीं होता – बल्कि यह हर दिन का जीवन-शैली होता है। असली प्रेम भावनाओं या शारीरिक आकर्षण से प्रेरित नहीं होता, बल्कि यह परमेश्वर के आत्मा से संचालित होता है – वैसा प्रेम जैसा प्रभु यीशु ने क्रूस पर दिखाया।

1 यूहन्ना 4:7–10 (ERV-HI):
“प्रिय मित्रो, हमें एक दूसरे से प्रेम रखना चाहिए, क्योंकि प्रेम परमेश्वर से आता है। हर वह व्यक्ति जो प्रेम करता है, वह परमेश्वर का सन्तान है और परमेश्वर को जानता है… प्रेम यह नहीं है कि हम ने परमेश्वर से प्रेम किया, बल्कि यह है कि उसने हम से प्रेम किया और अपने पुत्र को हमारे पापों का प्रायश्चित बनने के लिए भेजा।”

यूहन्ना 15:13 (ERV-HI):
“अपने मित्रों के लिये अपने प्राण देना, इससे बड़ा प्रेम किसी का नहीं होता।”

यही है वह प्रेम जिसकी शिक्षा हमें दी गई है – बलिदान करने वाला, शुद्ध और पवित्र प्रेम।

तो क्या मसीहियों को वैलेंटाइन डे मनाना चाहिए?

उत्तर है: नहीं। यह कोई मसीही त्योहार नहीं है। यह सांसारिक परंपराओं पर आधारित है, और आमतौर पर आत्मिक अनुशासन या मसीही प्रेम के बजाय भावनाओं और शारीरिक इच्छाओं को बढ़ावा देता है।

वैलेंटाइन हमारे उद्धारकर्ता नहीं हैं। उन्होंने हमारे पापों का भार नहीं उठाया। उन्होंने हमें नया जीवन नहीं दिया। तो फिर हम क्यों उनका स्मरण फूलों, तोहफ़ों और गीतों के साथ मनाएं, जिनका मूल मूर्तिपूजा से है?

हमें “वैलेंटाइन का प्रेम” नहीं, बल्कि मसीह का प्रेम फैलाना है – वह प्रेम जो पाप से छुटकारा देता है, शुद्ध करता है, पुनर्स्थापित करता है और अनंत जीवन देता है।

मसीहियों को इससे क्या सीखना चाहिए?

1. प्रेम हर दिन का विषय है, न कि केवल एक दिन का
बाइबल के अनुसार प्रेम को विशेष रूप से किसी एक दिन तक सीमित नहीं किया गया है। यह तो हर दिन हमारे जीवन से झलकने वाला स्वभाव है।

2. सांसारिक वासना नहीं, आत्मिक प्रेम को बढ़ावा दें
हमें विशेष रूप से युवाओं को सिखाना चाहिए कि प्रेम वासना नहीं है। असली प्रेम पवित्र होता है, आदर करता है और प्रतीक्षा करता है।

3. वैलेंटाइन डे को सेवा के अवसर में बदलें
अगर हम चाहें तो 14 फरवरी को आत्मिक रूप से उपयोग कर सकते हैं:

  • अकेले या बीमार लोगों से मिलने जाएँ और मसीह का प्रेम बाँटें।

  • अनाथों या जरूरतमंदों की सहायता करें।

  • युवाओं के लिए शुद्धता और आत्मिक संबंधों पर संगति या प्रार्थना सभा आयोजित करें।

  • प्रेम का सच्चा संदेश लेकर मसीह के प्रेम से युक्त कार्ड्स या संदेश साझा करें।

आत्मिक विवेक का आह्वान

प्रिय जनों, हम इस संसार के अनुसार नहीं जीते। संसार प्रेम को भावनाओं और भोग-विलास से जोड़ता है, लेकिन हम मसीह में एक पवित्र और बलिदानी प्रेम में चलने के लिए बुलाए गए हैं।

रोमियों 12:2 (ERV-HI):
“इस संसार के ढंग पर न चलो। बल्कि अपने मन को नया बना कर एक नई सोच विकसित करो, ताकि तुम जान सको कि परमेश्वर की इच्छा क्या है—क्या अच्छा है, क्या उसे स्वीकार्य है और क्या पूर्ण है।”

आइए हम अपनी आँखें वैलेंटाइन पर नहीं, बल्कि यीशु पर टिकाएं – प्रेम के सच्चे स्रोत और पूर्णता पर।

प्रभु हमें प्रतिदिन अपने प्रेम में जीने की सामर्थ दे। आमीन।

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